पोलियो (Polio)क्या है?

Om Prakash Patidar
Shajapur

पोलियो क्या है?

पोलियो एक ऐसी बीमारी है जो किसी समय लाखों लोगों को अपाहिज बना देती थी। इसके कितने ही शिकार मर जाते थे। लेकिन वैज्ञानिकों, डॉक्टरों और स्वास्थ्य कर्मियों के संयुक्त प्रयासों से आज यह बीमारी धरती से खत्म होने की कगार पर है। यह कैसे हुआ? इसकी शुरुआत हुई 1935 में जब न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी के एक युवा शोधकर्ता मौरिस ब्रॉडी ने सबसे पहले इसकी वैक्सीन बनाई। उन्होंने इसे सबसे पहले चिंपांजी पर टेस्ट किया, फिर खुद पर और फिर कुछ बच्चों पर। उन्हीं दिनों एक अन्य शोधकर्ता जॉन कोलमेर ने एक अन्य वैक्सीन बनाई और इसे बच्चों पर टेस्ट किया। ये दोनों ही प्रयोग बुरी तरह से असफल रहे। कुछ बच्चों को तो इसके गंभीर साइड इफ़ेक्ट भी हो गए। उसके बाद काफी लोगों ने कोशिशें की लेकिन सफलता हाथ नहीं आयी। फिर 1948 में एक अमेरिकी वैज्ञानिक थॉमस वैलर ने पोलियो वायरस को लेबोरेटरी में कल्चर करने का तरीका खोज निकाला जिसके लिए उन्हें नोबेल पुरुस्कार दिया गया। फिर 1952 में एक वैज्ञानिक जोन्स साक और उनकी टीम ने पहले सफल पोलियो वैक्सीन का आविष्कार किया। जोन्स साक का जन्म न्यूयॉर्क शहर में 1914 में हुआ था। उन्होंने 1939 में न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी से मेडिकल की डिग्री हासिल की। लेकिन उनकी रुचि मेडिकल प्रैक्टिस में नहीं थी। इसलिए कुछ समय प्रैक्टिस करने के बाद उन्होंने अपना कार्यक्षेत्र रिसर्च को बना लिया। उन दिनों पोलियो एक डर पैदा करने वाली बीमारी हुआ करती थी। 1952 में अमेरिका में पोलियो के 58000 केस सामने आए थे जिनमें से 3145 की मृत्यु हो गई थी। 21269 कम या ज्यादा विकलांगता का शिकार हो गए थे। 1947 में जोन्स साक पिट्सबर्ग यूनिवर्सिटी के मेडिकल स्कूल में काम करने लगे। यहां उन्होंने चुने हुए लोगों की एक टीम बनाई और अगले सात साल के लिए पोलियो वैक्सीन की रिसर्च में जी जान से जुट गए। जब वैक्सीन बन कर तैयार हो गई तो इसका फील्ड ट्रायल किया गया। यह उस समय तक का सबसे विस्तृत फील्ड ट्रायल था। इसमें 20000 डॉक्टरों और पब्लिक हेल्थ अफसरों, 64000 स्कूल कर्मियों, 220000 वालंटियरों ने हिस्सा लिया। 1800000 स्कूली बच्चों को यह वैक्सीन दी गई। ट्रायल की रिपोर्ट 12 अप्रैल 1955 को सार्वजनिक की गई। प्रयोग सफल रहा था। पूरा अमेरिका खुशी से झूम उठा था। लोग लगातार बधाइयां दे रगे थे, उनके सम्मान में सलाम भेज रहे थे, स्कूलों की छुट्टियां हो गई थी। यह मानव जाति के इतिहास में आगे की एक छलांग थी। डॉ जोन्स साक "चमत्कारी कार्यकर्ता" के तौर पर प्रसिद्ध हो चुके थे। इस प्रयोग के बाद तो अमेरिका ही नहीं बल्कि दुनिया के दूसरे देशों में भी डॉ जोन्स साक की बनाई वैक्सीन से व्यापक टीकाकरण अभियान शुरू हो गए। डॉ साक ने कहा था कि पोलियो का टीकाकरण एक नैतिक जिम्मेदारी होना चाहिए। डॉ साक ने अपनी इस खोज का पेटेंट नहीं करवाया। एक अनुमान के अनुसार वैक्सीन के पेटेंट के बाद इसकी कीमत 7 अरब डॉलर तक होती। लेकिन डॉ साक को पैसे की बजाय मानवता की परवाह थी। एक पत्रकार ने जब इनसे पूछा कि इसका पेटेंट किसके पास है तो साक ने जवाब दिया कि इसका कोई पेटेंट नहीं है। क्या आप सूरज का पेटेंट कर सकते हैं?

उन्हीं दिनों एक और वैज्ञानिक डॉ अल्बर्ट साबिन भी पोलियो वैक्सीन की रिसर्च में लगे हुए थे। साक की वैक्सीन मरे हुए वायरस पर आधारित थी जिसने इंजेक्शन से शरीर में पहुंचाया जाता था। साबिन निष्क्रिय किये हुए जिंदा वायरस पर आधारित वैक्सीन बना रहे थे जिसे मुंह से बूंद बूंद करके शरीर में पहुंचाया जा सके। "दो बूंद जिंदगी की" के बारे में हम सभी जानते हैं। अल्बर्ट साबिन का जन्म रूसी साम्राज्य के अधीन पोलैंड में एक यहूदी परिवार में 1906 में हुआ था। 1922 में वे परिवार सहित अमेरिका में चले गए थे। साबिन ने 1931 में न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी से मेडिकल की डिग्री हासिल की। इसके बाद अलग अलग जगह काम करते हुए इनकी रुचि संक्रामक रोगों से संबंधित रिसर्च में होने लगी। दूसरे विश्वयुद्ध में ये अमेरिकी सेना के साथ थे और इन्होंने जापानी बुखार की वैक्सीन विकसित करने में मदद की। इसके बाद ये पोलियो वैक्सीन के शोध में जुट गए। इन्होंने 1954 में ओरल वैक्सीन यानि मुंह से दी जा सकने वाली जिंदा वायरस पर आधारित वैक्सीन का आविष्कार किया। साथ ही 1955 में साक भी पोलियो की वैक्सीन का आविष्कार कर चुके थे। साक की यह वैक्सीन पोलियो की अधिकतर जटिलताओं को रोकती थी लेकिन यह आंतों में पोलियो के इन्फेक्शन को रोकने में नाकाम थी। साबिन की ओरल वैक्सीन यह काम बखूबी कर सकती थी। इसका प्रभाव लम्बे समय तक रहता था। और यह सस्ती भी पड़ती थी। साबिन ने खोज की थी कि पोलियो का वायरस असल में आंतों में ही द्विगुणित होता है और वहीं से हमला करता है। ओरल वैक्सीन इसको वहीं पर रोकती थी और इसके प्रसार पर रोक लगाती थी। इससे इस बीमारी का धरती से जड़ से खात्मा सम्भव था। उन दिनों अमेरिकी सरकार साक की बनाई वैक्सीन पर ज्यादा भरोसा करती थी इसलिए साबिन की वैक्सीन को तवज्जो मिली सोवियत संघ में। 1955 से 1961 तक साबिन की वैक्सीन को सोविएत संघ, पूर्वी यूरोप के भागों में, सिंगापुर, मैक्सिको और नीदरलैंड में लगभग दस करोड़ लोगों को दिया जा चुका था। साबिन को सोवियत संघ सर्वोच्च नागरिक सम्मान दिया गया बावजूद इसके कि वह एक अमेरिकी नागरिक थे और वह शीत युद्ध का काल था। यह डॉ साबिन की प्रतिभा और मानवता की भलाई के प्रति उनके जज्बे की वजह से हुआ था। 1957 में साबिन ने पोलियो के मौजूद तीनों वायरसों पर आधारित ट्राईवेलेंट पोलियो वैक्सीन विकसित की। 1961 में इसे अमेरिका के सिनसिनाटी में टेस्ट किया गया और उसकी वजह से सिनसिनाटी पोलियो मुक्त हो गया। इसके बाद विश्व स्वास्थ्य संगठन ने पूरी दुनिया में व्यापक पोलियो मुक्ति अभियान शुरू किया तो उसमें साबिन की बनाई हुई पोलियो वैक्सीन ही इस्तेमाल की गई। हमारे देश में भी पोलियो टीकाकरण अभियान जिसकी वजह से हम पोलियो को खत्म करने में सफल रहे हैं, साबिन की बनाई हुई "दो बूंद जिंदगी की" पर ही आधारित था। साबिन ने भी अपनी इस खोज का पेटेंट करवाने से इनकार कर दिया और अपनी यह खोज मानवता को समर्पित कर दी।
डॉ जोन्स साक, डॉ अल्बर्ट साबिन और उनके जैसे अन्य मानवता के सेवकों की बदौलत हम एक अच्छी जिंदगी जी रहे हैं। बीमारियों से बचे हुए हैं। विज्ञान आज मुनाफे की चपेट में है लेकिन साक और साबिन जैसे लोग समय समय पर मानवता के सेवक के रूप में विज्ञान की लौ को जलाए रखते हैं और मानवता में विश्वास बनाए रखते हैं।

साभार
-डॉ. नवमीत नाव 

एक टिप्पणी भेजें

If you have any idea or doubts related to science and society please share with us. Thanks for comments and viewing our blogs.

और नया पुराने