Co-Curricular Activities
Om Prakash Patidar
पाठ्य सहगामी क्रियाओं से तात्पर्य उन सभी गतिविधियों से हे जिन्हे विद्यालयों में अध्यापन के दौरान विद्यालयों में विद्यार्थीयों के सर्वागीण विकास हेतु आवश्यक माना जाता है। पहले इन क्रियाओ पाठ्येतर क्रियाए कहा जाता था। परन्तु पाठृयेतर शब्द के अर्थ को अकादमिक रूप से अतिरिक्त अथवा अमहत्वपूर्ण के रूप में आकलित किया जाता था। इस कारण इन क्रियाओं के महत्व को देखते हुए वर्तमान में इन्हे पाठ्य सहगामी क्रियाए कहा जाने लगा है। विद्यालयों में प्रदान की जाने वाली शिक्षा से तात्पर्य विद्यार्थीयों को ज्ञान प्रदान करना ही नही अपितु विद्यार्थीयो का सर्वागीण विकास करना है। विद्यार्थीयों का सर्वागीण विकास से तात्पर्य उनका शारीरिक,मानसिक, सामाजिक,नैतिक तथा भावनात्मक विकास करना है। विद्यार्थीयों में इन गुणो का विकास सिर्फ पुस्तकीय ज्ञान द्वारा नही किया जा सकता है। इन सभी गुणो को विससित करने में पाठ्य सहगामी क्रियाए महत्वपूर्ण होती है। पाठ्य सहगामी क्रियाए बालक बालिकाओं के मानसिक,शारीरिक,नैतिक एवं सामाजिक विकास के लिए महत्वपूर्ण मानी जाती है। किसी विद्याथी द्वारा पाठ्य सहगामी क्रियाओ में सहभागिता करने से उसका सर्वागीण विकास होता है। यह क्रियाए बालको के समाज में सामन्जस्य करना सीखता है तथा उसमे स्व अनुशासन, लोकतांत्रिकता, नेत्रतत्व, सहयोग, एवं भाईचारे की भावना आती है। तथा बालक नकारात्मक एवं विध्वंशकारी गतिविधियों को त्यागकर सकारात्मक एव सृजनात्मक कार्यो की ओर आकृष्ट होता हैै. विद्यालय में हमारे बच्चों को न सिर्फ समसामयिक षिक्षा प्रदान की जाती है, बल्कि यहा वहा स्थान जहा बालक का सर्वागीण विकास किया जाता है। बालक का सर्वागीण विकास सिर्फ पुस्तकीय ज्ञान द्वारा सम्भव नही है, बालक का सर्वागीण विकास अर्थात उसका मानसिक,सामाजिक,षारीरिक,मनोवैज्ञानिक,बौद्धिक, नैतिक तथा भावनात्मक विकास विद्यालय में आयोजित होने वाली पाठ्य सहगामी क्रियाओं द्वारा की सम्भव है।
पाठ्य सहगामी क्रियाओं के उदे्दश्यः-
· विद्यार्थियों में चारित्रिक भावना को उन्नत बनाना।
· विद्यार्थियों में स्व शासन की भावना का विकास करना।
· विद्यार्थियों में सह अस्तित्व की भावना का विकास करना।
· विद्यालय एवं समाज के पारस्पिरिक सम्बन्धो का उन्नत बनाना।,
· अवकाश का सदुपयोग करना।
· विद्यार्थियों का सर्वागीण विकास करना।
· पाठ्य सहगामी क्रियाओं का महत्वः-
· वैयक्तिक आवश्यकता की पूर्ति मे सहायक।
· सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति में सहायक।
· किशोरावस्था की आवश्यकताओं की पूर्ति में सहायक।
· अनुशासन स्थापित करने में सहायक
· विशेष रूचियों का विकास।
· नैतिक गुणों का विकास।
· शारीरिक विकास।
पाठ्य सहगामी क्रियाओं के प्रकारः
पाठ्य सहगामी क्रियाओं को प्रमुख रूप से निम्न प्रकारो में विभक्त किया जा सकता हैः-
· संगठन एवं प्रबधन से सम्बन्धित पाठ्य सहगामी क्रियाए - छात्र परिषद्, छात्र संघ, युवा संसद, तथा सीनेट।
· सामुदायिक पाठ्य सहगामी क्रियाए - शिक्षा सप्ताह, स्वास्थ्य सप्ताह, तथा रोग जागरूकता सप्ताह।
· सामाजिक पाठ्य सहगामी क्रियाए - राष्ट्रीय सेवा योजना, स्काउटिग, जूनियर रेडक्रास तथा श्रमदान।
· मनोरंजन से सम्बन्धित पाठ्य सहगामी क्रियाए - पिकनिक, टिफीन पार्टी, नाटक, तथा हास्य क्लब।
· शारीरिक विकास से सम्बन्धित पाठ्य सहगामी क्रियाए - खेल,योग,व्यायाम तथा पीटी।
· विज्ञान सम्बन्धित पाठ्य सहगामी क्रियाए -विज्ञान मेला, विज्ञान प्रदर्शनी,विज्ञान सेमीनार, गणित एवं विज्ञान ओलम्पीयाड।
· विषय से सम्बन्धित पाठ्य सहगामी क्रियाए - विज्ञान क्लब, भाषा क्लब, सामाजिक विज्ञान क्लब, तथा पर्यावरण क्लब।
· संगीत से सम्बन्धित पाठ्य सहगामी क्रियाए - संगीत क्लब, आर्केस्ट्रा, बैण्ड, तथा गायन वादन।
· साहित्यिक पाठ्य सहगामी क्रियाए - विद्यालय पत्रिका ,भाषण, वाद-विवाद, तथा नाटक एकांकी।
· विविघ पाठ्य सहगामी क्रियाए-विभिन्न दिवस मनाना,बागवानी, फोटोग्राफी,टिकट सग्रहण, सिक्के संग्रहण, वार्षिकोत्सव, पूर्व छात्र सम्मेलन, अभिभावक दिवस, मा-बेटी सम्मेलन, राष्ट्रीय छात्र सेना।
अधिकतर विद्वानो ने इस बात की वकालत की कि खेलकूद सम्बन्धित पाठ्य सहगामी क्रियाओं सलग्न रहने वाले विद्यार्थी अक्सर अकादमिक रूप से भी अच्छे होते है। खेलकूद सम्बन्धित पाठ्य सहगामी क्रियाए अधिगम की प्रक्रिया में सहायक होती है। इसी प्रकार अन्य विद्वानों का मानना हे कि जो विद्यार्थी जो कि अकादमिक गतिविधियों में कम समय दे पाते है तथा ज्यादातर समय खेलकूद सम्बन्धित पाठ्य सहगामी क्रियाओं में व्यतीत करते है उनकी अकादमिक सफलता अथवा उन्नती पर पाठ्य सहगामी क्रियाओं का कोई नकारात्मक प्रभाव नही होता है। जो विद्यार्थी पाठ्य सहगामी क्रियाओं में सहभागिता करते है वह पाठ्य सहगामी क्रियाओं में सहभागिता न करने वाले विद्यार्थीयों की तुलना में न सिर्फ अकादमिक रूप से अच्छा प्रदर्शन करते है अपितु उनमें अन्य गुणों जेसे स्व अनुशासन, आत्मविश्वास, सहयोग की भावना, नेतुत्व की भावना आदि का विकास अधिक मात्रा में होता है। पाठ्य सहगामी क्रियाओं के सम्बन्ध में यह महत्वपूर्ण हे कि इनका संचालन एक नियमित समय सारणी के अनुसार करवाया जाना चाहिए। पाठ्य सहगामी क्रियाओं की अधिकता भी विद्यार्थियों के अकादमिक पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकती है।
सहगामी क्रियाओं के संचालन हेतु अनुशंसाए
पाठ्य सहगामी गतिविधियों के माध्यम से अधिगम की प्रक्रिया अन्तर्गत किये गये अध्ययन के आधार पर निम्नलिखित अनुशंसाए निम्नानुसार है-
1).पाठ्य सहगामी क्रियाए विद्यार्थीयों की वैयक्तिक एवं सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति में सहायक होती है।
2).यह अनुशासन स्थापित करने में, विशेष रूचियों, नैतिक गुणों तथा विद्यार्थीयों के शारीरिक विकास करने में सहायक होती है।
3).विद्यालय समय के पश्चात पाठ्य सहगामी क्रियाओं की अधिकता विद्यार्थीयों के अधिगम नकारात्मक प्रतिकूल प्रभाव डालती है। अतः विद्यार्थीयों को विद्यालय समय पश्चात इनकी अधिकता से बचाना चाहिए।
4).विद्यालय की समय सारणी में पाठ्य सहगामी क्रियाओं के लिए तर्कसंगत कालखण्डो का निर्धारण करना चाहिए। इनके लिए प्रति सप्ताह अधिकतम तीन कालखण्डो का निर्धारण किया जा कर विद्यालय पश्चात इन गतिविधियों को प्रतिबन्धित किया जाना चाहिए।
5).विद्यार्थीयों के लिए घर पर भी समय सारणी बनाना चाहिए जिसमें अकादमिक एवं सहगामी क्रियाओं हेतु समय आवन्टित किया जाना चाहिए। प्रयास किये जाना चाहिए की बच्चे अधिकतम व्यस्त रहे।
6).बच्चों को घर पर अकेले में इन्टरनेट व मोबाईल फोन के उपयोग पर रोक लगाकर रखना चाहिए। साथ टेलीविजन एवं विडीयो प्लेयर का उपयोग सिर्फ अकादमिक उद्दश्य के लिए किया जाना चाहिए।
7).क्रिकेट जैसे समय की बर्वादी वाले खेलों को एक निश्चित समय सीमा तक खेलने एवं टेलीविजन पर देखने देना चाहिए।
8).घर पर टेलीविजन देखने के लिए एक निश्चित समय रखना चाहिए। तथा टेलीविजन पर हिंसा अनावश्यक दृश्यों युक्म कार्यक्रम को नही देखने देना चाहिए।
9).विद्यालय एव विद्यालय के बाहर बच्चों की बुरी संगत से बचाकर रखना चाहिए। क्योकि बाल मन पर बुरी संगत का प्रभाव जल्दी पडता है।
10).पाठ्य सहगाामी क्रियाओं का संगठन एवं संचालन इस प्रकार से करना चाहिए कि इनसे विद्यालय की अध्ययन अध्यापन क्रिया एवं विद्यार्थीयों के गृहकार्य करने में किसी प्रकार की बाधा उतपन्न न हो और छात्र तथा शिक्षक शिक्षालय के सम्पूर्ण कार्यो में रूचि बनाए रख सकें।
सिर्फ पुस्तकीय ज्ञान से बच्चों का सर्वागीण विकास सम्भव नही।