प्राथमिक शिक्षा के युगपुरुष गिजुभाई बधेका


प्रस्तुतिकरण
ओम प्रकाश पाटीदार

गिजुभाई बधेका (15 नवम्बर 1885 - 23 जून 1939) गुजराती भाषा के लेखक और महान शिक्षाशास्त्री थे। उनका पूरा नाम गिरिजाशंकर भगवानजी बधेका था। अपने प्रयोगों और अनुभव के आधार पर उन्होंने निश्चय किया था कि बच्चों के सही विकास के लिए, उन्हें देश का उत्तम नागरिक बनाने के लिए, किस प्रकार की शिक्षा देनी चाहिए और किस ढंग से दी जाने चाहिए। गिजुभाई द्वारा लिखित पुष्तक "दिवास्वप्न"किसी अध्यापक की डायरी सरीखी है. जो एक अध्यापक की जिद को सामने लाती है जो शिक्षा में बदलाव के स्वपन को साकार करना चाहता है. लोगों को बताना चाहता है कि शिक्षा में बदलाव संभव है, लेकिन इसके लिए अपने ही विचारों और मान्यताओं को चुनौती देना पड़ेगा. ऐसा करना हमें बाकी लोगों के साथ संवाद और विचारों को साझा करने की दृष्टि से काफी उपयोगी होगा. 

प्राथमिक शिक्षा के प्रथम प्रयोग-पुरुष "गिजुभाई बधेका" ने जो नवाचार प्रारंभ किया था, वही तो आज की बाल-केंद्रित शिक्षा है, वही आनंददायी और सहभागी शिक्षा है और उसी के अंदर से प्रकट होते हैं सीखने एवं सिखाने के वे तत्व, जिन्हें जिज्ञासा, प्रश्न या तर्क, विश्लेषण, विवेचन, वर्गीकरण, तुलना और निष्कर्ष आदि कहा जाता है। शिक्षा ज्ञान का मात्रा अक्षरीकरण नहीं है। शिक्षा परिवर्तन की सबसे अधिक प्रभावशाली प्रक्रिया है। यदि भारतीय शिक्षा आयोग 1964-66 यह कहता है कि भारत का भविष्य उसकी शालाओं की कक्षाओं में आकार ले रहा है, तो यह सोचना होगा कि वह भविष्य क्या है, कौन है और कक्षाओं में कैसे आकार ले रहा है? गिजुभाई कोई नियमित शिक्षक नहीं थे और न उन्होंने शिक्षा का कोई प्रशिक्षण लिया था। जिस समय नवाचार, बाल-केंद्रित शिक्षा, आनंददायी एवं सहभागी शिक्षा जैसे मुहावरे भारतीय शिक्षा में शैक्षिक प्रक्रिया, पद्धति या प्रणाली के रूप में मौजूद ही नहीं थे, उस समय गिजुभाई ने तत्कालीन शिक्षा और शिक्षण-पद्धति में सार्थक हस्तक्षेप किया था, शिक्षा के तत्कालीन स्वरूप, संस्था की स्थिति और उसकी कार्य-प्रणाली, शिक्षक एवं उनकी शिक्षा-चेतना, व्यवस्था एवं उसकी शैक्षिक प्राथमिकता, समाज और उसकी शिक्षा के प्रति जिम्मेदारी आदि सभी को अपने प्रयोगों से चकित किया था और शिक्षण एवं शिक्षक दोनों को ही एक नई पहचान दी थी। ब्रिटिश साम्राज्य उपनिवेश भारत में भारतीय शिक्षा का स्वदेशी और पारंपरिक मॉडल लगभग लुप्त हो चुका था। अंग्रेजी प्रणाली के स्कूल जगह-जगह कायम होगए थे और शिक्षक सरकारी नौकर के रूप में स्कूलों में शिक्षण कार्य करते थे। बहुतअधिक अंतर नहीं था उस समय के उन स्कूलों में जहाँ , गिजुभाई ने अपने प्रयोग और नवाचार किए थे और आज के उन स्कूलों में जो आज भी वैसे ही हैं जैसे गिजुभाई के ज़माने के स्कूल थे। गिजुभाई के समक्ष स्कूल का कोई ऐसा मॉडल या आदर्श नहीं था, जिसे वे अपना लेते। गिजुभाई के समक्ष था एक छोटे से कस्बे का वह सरकारी स्कूल, जिसका भवन न भव्य था, न आकर्षक, न बच्चों के आनंद और किलकारी से गूंजती जगह। जिस स्कूल में गिजुभाई ने मास्टर लक्ष्मीशंकर के रूप में एक प्रयोगी शिक्षक की परिकल्पना की थी, वह स्कूल उदासीनता और उदासी की छाया से ग्रस्त था। शिक्षकों में न उत्साह था, न सोच के प्रति संवेदना। नीरस, नि:स्पन्द और निष्प्राण था वह स्कूल, जिसमें मनुष्य की सर्वश्रेष्ठ कृति बालक एवं बालिका जीवन-निर्माण के संस्कार और व्यवहार सीखने आते थे। गिजुभाई ने स्कूल के तत्कालीन रूपक को उसकी जड़ता और गतिहीनता से मुक्त किया। प्राथमिक शिक्षा में आनन्द की नई वर्णमाला रची, बाल-गौरव की नई प्रणाली रची और कक्षा के भूगोल को समूची पृथ्वी के भूगोल में बदलकर भारतीय शिक्षा का नया इतिहास रचा, नया बाल-मनोविज्ञान रचा और शैक्षिक नवाचारों की वह दिशा एवं दृष्टि रची, जो आज भी प्रासंगिक एवं सार्थक है। एक व्यक्ति जो शिक्षक नहीं था, एक व्यक्ति जो उस प्रकार का समाज सेवी या स्वतन्त्राता-संग्राम सेनानी भी नहीं था जैसे गाँधी जी के साथ उन दिनों हुआ करते थे, जिसने कोई स्वदेशी या विदेशी प्रशिक्षण भी नहीं लिया था और जो पेशे से दक्षिण अफ्रीका में एक वकील या अभिभावक था, उसने एक नया ही स्वतंत्रता -संग्राम लड़ा था, एक नया मुक्तिमार्ग रचा था। उसने स्वतंत्र किया था पाठशाला या स्कूल को, उसी जड़ता, गतिहीनता और सोच-विहीनता से, उसने मुक्त किया था, उन बालक-बालिकाओं को जो स्कूल में भय, भ्रम और ऊब का कारावास भोगते थे और उसने मुक्त किया था उन शिक्षकों को भी जो जी रहे थे चुनौती रहित, आस्थाहीन और उदासीन जिन्दगी और जिनके लिए नवाचार या प्रयोग मजाक के विषय थे। गिजुभाई ने वह काम किया था, जो प्राय: उस समय के किसी वकील, सामाजिक कार्यकर्ता, स्वतंत्रता सेनानी या नागरिक ने नहीं किया। भारत की स्वतंत्रता का संग्राम उन्होंने शुरू किया था, प्राथमिक शाला की कक्षा से, उन बालक-बालिकाओं से जो उनके बालदेवता थे और जिनके आनन्द की शिक्षा ही सचमुच मुक्ति की शिक्षा थी। गाँधी जी और गिजुभाई दोनों वकील थे, मगर एक ने राष्ट्र की वकालत की,स्वतंत्रता की वकालत की, तो दूसरे ने शिक्षा की वकालत की । 

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